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एक चिठ्ठी माँ के नाम ……..

man ki baat
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माँ मेरी प्यारी माँ ………….जन्म के बाद सबसे पहले शायद मैंने तुम्हे ही पुकारा होगा ,मेरी पहली मुस्कान पर भी सबसे पहले तुम्हीं वारी होगी,पहली बार जब कदम लडखडाये होंगे तब भी तुम्हीं ने संभाला होगा, पहला अन्न का निवाला भी तुम्हीं ने खिलाया होगा ,वो थक कर तुम्हारी गोद में सो जाना ….वो तुम्हारा मेरे सिर में तेल लगाना,मेरी चोटी बनाना…….वो स्कूल से आकर अपनी अलमारी सहेजी हुई मिलना ……….वो मेरी पसंद की चीज़ खुद न खाकर मुझे खिला देना …………..वो मेरी ग़लतियों पर मुझे समझाना और फिर उन पर पर्दा भी डालना ………….इन सबका मोल मैंने तब समझा जब मै खुद माँ बनी।
कुछ भी हो माँ तुम बिलकुल नहीं बदलीं …क्योंकि जब मै पाँच बरस की थी तब भी तुम मुझे दूध पीने के लिए डांटती थीं और आज जब मै पचास की होने को आई तब भी तुम पूछना नहीं भूलतीं कि ,’दूध तो पीती हो ना?’पर एक प्रश्न मुझे बार-बार कचोटता है ,आज पूछती हूँ ,मैंने तो इस दुनिया में सबसे पहले तुम्हे ही अपना जाना था,सब कहते भी हैं कि मै तुम्हारी पेट-जायी हूँ ,फिर तुम ये क्यों कहती हो कि ,मै परायी हूँ।

तूने फूँके प्राण तन-मन में, माँ तुझसे ही है ये जीवन.

तेरी साँसों की लय पर, सीखा मैंने साँसे लेना.
धड़का ये ह्रदय पहले, सुन कर तेरी ही धड़कन.

तूने फूँके प्राण तन-मन में ,माँ तुझसे ही है ये जीवन.

तेरे आँचल में ही देखा, पहला सुखद सपन सलोना.
तेरी बाँहों के झूले में ,मिट जाती थी हर थकन .

तूने फूँके प्राण तन-मन में ,माँ तुझसे ही है ये जीवन .

जीवन-पथ से चुन कर काँटे,सिखलाया सपनों को संजोना.
हर ठोकर पर गोद तुम्हारी,तुमने ही दिखलाया था दर्पण.

तूने फूँके प्राण तन-मन में,माँ तुझसे ही है ये जीवन.

बनाया स्वाभिमानी तुमने,तो तुम्ही से सीखा मैंने झुकना.
देकर संस्कारों की थाती ,बना दिया ये जीवन उपवन.

तूने फूँके प्राण तन-मन में ,माँ तुझसे ही है ये जीवन.

माँ क्या होती है ,ये मैंने माँ बन कर है जाना,
अपने आँचल के फूलोँ पर करती तन-मन-धन और जीवन अर्पण.

तूने फूँके प्राण तन-मन में माँ तुझसे ही है ये जीवन.

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