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“हम क्यूँ ये सोचते हैं कि ,’वो’ भी कभी सुधरेंगे………………..
‘वो’जो अलग हुए थे कभी नफरत की बिसात पर,
खाया है धोखा हमने उनकी हर बात पर .
क्या उनकी सोच के रंग भी कभी बदलेंगे ?
हम क्यूँ ये सोचते हैं कि ,’वो’भी कभी सुधरेंगे ………………….
बढाया तो था कई बार दोस्ती का हाथ ,
हर बार उन्होंने ही मौके पे छोड़ा साथ .
क्या अब ‘वो’अपनी बात से नहीं मुकरेंगे?
हम क्यूँ ये सोचते हैं कि ,’वो’भी कभी सुधरेंगे ……………..
खेल कर भी देखा ,चला कर रेल को भी देखा ,
उनकी रुसवाइयों से हमने कुछ भी नहीं सीखा .
क्या ‘वो’ पत्थर-दिल भी कभी पिघलेंगे?
हम क्यूँ ये सोचते हैं कि ,’वो’भी कभी सुधरेंगे …………..
लाँघ कर खुद ही सीमाओं को कहते है -सीमा में रहो,
हम भी खूब हैं , सोचते हैं चलो भावनाओं में बहो .
क्या किसी ‘सरबजीत’के दिन भी कभी बहुरेंगे?
हम क्यूँ ये सोचते हैं कि ,’वो’भी कभी सुधरेंगे ………
काम न आया कोई दबाव और कैसी भी सख्ती,
‘उन्होंने’तो टांग रखी है गले में तख्ती .
इरादे हैं हमारे ‘नापाक’हम कभी नहीं सुधरेंगे .
हम क्यूँ ये सोचते हैं कि , ‘वो’ भी कभी सुधरेंगे …………
‘
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