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आजकल मेरे घर के सामने एक वृक्ष ,दिन दूना ,रात चौगुना बढ़ रहा है,
इस जुलाई पानी न के बराबर बरसा ,फिर भी वृक्ष आकाश चढ़ रहा है।
एक दिन मैंने उसके पास जाकर ,फुसफुसा कर पूछा,
महाशय ,इस तरक्की का राज़ बताएँगे ,हम भी अपने बगीचे में आजमाएंगे।
वृक्ष गर्व से तन,बेपरवाही से अपनी टहनियों को लचका कर बोला ,
ये राज़ बड़ा ख़ास है,इसे बताने का अधिकार नहीं हमारे पास है।
बस !इतना जान लीजिये ,ये सरकारी ‘ज़मीन’ है ,
मतलब? मतलब बड़ा ही महीन है ……………
सरकारी ज़मीनों पर मेरे जैसे कई पनप रहे हैं ,
मैं चौंकी ,” मेरे बगीचे में तो वृक्ष बिन पानी कलप रहे हैं।”
वृक्ष ने विद्रूपता भरी मुस्कान के साथ मुँह खोला,
और अबकी सब सच-सच ही बोला…………
महोदया मैं हूँ वृक्ष ‘भ्रष्टाचार ‘ का भरपूर पोषित ,
पनपता हूँ मैं ,जब जनता होती है शोषित।
मुझे चाहिए बेशर्मों की आँख का पानी ,बेईमानी की बहार,
मेरे फल खाते देश के नेता,देश के अफसर,देश के पालनहार।
मैंने दृढ़ता से कहा -मैं तुझे सुखाऊँगी,
अपने घर के सामने से हटाऊँगी …………
वृक्ष हुँकार के साथ झूम कर लरज़ा ,
थोड़ा और तन कर , मुझ पर गरजा …………..
मेरे रौब-दाब ,दबंगई की एक ही शाख काफी है तुझे दबाने के लिए ,
मैंने भी शालीनता से कहा ,’शर्म ‘के पानी की एक बौछार ही काफी है तेरे मुरझाने के लिए।
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