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लघु- कथा-”पुनर्मिलन “—–विनय बड़ी सी आलिशान कोठी के सामने खड़ा था , नेमप्लेट पर सुनहरे अक्षरों में “प्रवीण वर्मा ” पढ़ कर विनय की आँखों में चमक आ गई.…………… प्रवीण उसका बचपन का दोस्त था ,साथ-साथ खेले ,एक ही स्कूल में गए और बचपन के कितने ही सुनहरे पलों को संग -संग जिया। प्रवीण के पिता भी सरकारी अफसर थे ,विनय साधारण घर से था ,पर ये अंतर कभी उनकी दोस्ती के आड़े नहीं आया। प्रवीण की सादगी और सरलता से मुग्ध विनय की माँ कहती -’ये तो कृष्ण -सुदामा की जोड़ी है। ‘ वे आठवीं कक्षा में थे ,जब प्रवीण के पिता का तबादला दूसरे शहर में हो गया। उसके बाद कभी मिलना नहीं हुआ। विनय को पता चला था कि , प्रवीण का चयन प्रशासनिक -सेवा में हो गया है ,पर जीवन की आपा -धापी और जिम्मेदारियों ने कभी मौका ही नहीं दिया दोस्त से मिलने का , पिछले दिनों अखबार में एक खबर के माध्यम से पता चला कि,प्रवीण दिल्ली में ही उच्च -पद पर आसीन है ,विनय भी बेटे के पास दिल्ली में ही था………. सोचा अचानक पहुँच कर प्रवीण को चकित कर दूँगा। दरबान की आवाज़ से विनय की तन्द्रा टूटी ,”किससे मिलना है साहब?”
प्रवीण ने एक कागज़ पर अपना नाम लिख कर दिया ,आधे घंटे के बाद विनय को ड्राइंग-रूम में बुलाया गया ,और कुछ देर इंतज़ार के बाद प्रवीण आया तो दस मिनट औपचारिक बात के बाद प्रवीण ने कहा “अच्छा दोस्त मुझे तो कहीं निकलना है , तुम्हारा जो काम हो उसके बारे में पूरा ब्यौरा मेरे सेक्रेटरी को दे देना ,मैं देख कर बताता हूँ। ” विनय के उत्तर की प्रतीक्षा किये बिना ही प्रवीण चला गया। टैक्सी में घर वापस लौटते समय विनय बचपन की यादों में ही गुम रहा ……. टैक्सी से उतरा तो टैक्सी-ड्राईवर ने सीट पर पड़े पैकेट की याद दिलाई “साहब अपना सामान ले लीजिये। ” विनय ने कहा “दोस्त ये तुम रखो इसमें घर के बने अचार और लड्डू हैं,बच्चों को खिलाना। ” घर में प्रवेश करते समय विनय सोच रहा था ,’काश ! उस रोज़ अखबार न पढ़ा होता तो आज ये पुनर्मिलन न होता। ‘
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