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कई वर्ष पहले एक फ़िल्म आयी थी -“मेरे महबूब “उस फ़िल्म में आधी फ़िल्म के बाद नायक -नायिका की नज़रें चार हुई थीं। तब वो फ़िल्म सुपरहिट हुई थी। वो दौर ही कुछ और था ,तब प्यार दिलों में उतरने से पहले फ़िज़ाओं में रचता -बसता था। प्यार होने से पहले प्यार की आहट और प्यार होने के बाद प्यार की ख़ुमारी के बीच एक फासला होता था। ‘प्यार दीवाना होता है,मस्ताना होता है ‘ की बेफिक्री थी तो ‘प्यार से भी ज़रूरी कई काम हैं ,प्यार सब कुछ नहीं ज़िंदगी के लिए ‘का नैतिक- बोध भी था। जो प्यार करते थे उसे निभाते भी थे। ,हाँ !’जो अफ़साना किसी अंज़ाम तक लाना न हो मुमकिन ,उसे इक खूबसूरत मोड़ देकर छोड़ना अच्छा ‘जैसी मिसाल भी देखने को मिलती थी। अपवाद हर युग में होते हैं ,पर पहले प्यार सिरदर्द का सबब नहीं था।
आज के ‘तेरा प्यार यार हुक्कामार ‘और ‘राम चाहे लीला,लीला चाहे राम ,दोनों के लव में दुनिया का क्या काम ‘के दौर में प्यार मानो उपभोग की चीज़ बन कर रह गया है। हुक्के से निकले धुएँ के छल्लों में प्यार की पवित्र भावना कहीं खो गयी है। आज प्यार करने वालों को दुनिया तो क्या ,अपने “अपनों” की भी परवाह नहीं है। आज फिल्मों की शुरुआत ही नायक -नायिका के हमबिस्तर होने से होती है। पहले प्यार के सफ़र में समय का मेकअप ,फिर ब्रेकअप और कभी-कभी पैचअप भी। जहाँ पैचअप नहीं होता वहाँ बात अक्सर फेसबुक और ट्विटर पर एक -दूसरे की फ़ज़ीहत पर ही ख़त्म होती है। संत वैलेंटाइन ने प्यार का सन्देश दुनिया को दिया अच्छा किया ,मगर आज वो जीवित होते तो प्यार के ‘तमाशे’को देख कर शर्म से सर झुका लेते। मैं प्यार के ख़िलाफ़ नहीं ,परन्तु आज की पीढ़ी को अगर अपने निर्णय लेने की स्वतंत्रता और अधिकार मिला है तो उन्हें अपने परिवार और समाज के प्रति दायित्व-बोध को भी ताक पर नहीं रखना चाहिए। मैंने बहुत दिनों से कुछ लिखा नहीं था। आज शाम को जिम से लौटते समय सिटी-मॉल के सामने एक जोड़े की बेखुदी और बेशर्मी देख कर ये लिखने पर मज़बूर हूँ -‘इस प्यार को मैं क्या नाम दूँ ……’
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