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विस्मृति ….

man ki baat
man ki baat
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” आजकल भूलने लगी हूँ ,मैं बहुत ……
बत्ती जला कर बुझाना या खुला दरवाज़ा उढ़काना ,
ढूँढती फिरती हूँ चीज़ें रख कर ,इधर-उधर।
अक्सर भूल जाती हूँ किसी के जन्मदिन की ताऱीख ,
याद ही नहीं रहता कल फ्रिज़ में रखा था क्या ,
भूलती हूँ खाना दवा और उठाना आँगन से कपडे।
सोचती हूँ ये बढ़ती उम्र का असर है या पुराना ही कोई सिलसिला ,
क्योंकि भूली तो पहले भी बहुत कुछ थी…………….
छोड़ कर भुलाया बाबुल का अँगना और रिवाज़ ,
भूली थी अपना बचपना और दिल की आवाज़।
भूलती ही आयी हूँ हर कड़वी बात और अपने जज़्बात ,
फूलों की महक में भुला कर काँटों की चुभन ,
याद ही नहीं कितना अनसुना किया है मन।
बिसरा कर सुध घर की चाहरदीवारी में भूल ही गयी थी खुद को ,
कहाँ था याद कि ,एक दुनिया देहरी के उस पार भी है ,
और सपने भी यहीँ बैठे हैं छत की मुँडेर पर।
पर वो भूलना भी कोई भूलना था …………….
इसीलिए सबने भुला ही दिया उन बातों को ,
अब जो मैं भूलती हूँ ,तो सब कहते हैं –
तुम्हें भूलने की बीमारी हो गयी है………… ”

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